Monday, June 13, 2011

ਖਾਲੀ ਥਾਂ

ਧੂਰ ਅੰਦਰੋਂ ਕਿਤੋਂ ਕੋਈ ਆਵਾਜ਼ ਕੰਨਾਂ ਵਿੱਚ ਗੂੰਜਦੀ ਹੈ ਮੇਰੇ, ਤੇ ਮੇਰੀ ਆਤਮਾ ਨੂੰ ਕਰ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਲੀਰੋੰ ਲੀਰ
ਕਿਸਦੀ ਹੈ  ਇਹ ਆਵਾਜ਼ ਮੈਨੂੰ ਕੌਣ ਹੈ ਪੁਕਾਰਦਾ?ਚੀਖ ਜਿਸਦੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਮੇਰਾ ਕਲੇਜਾ ਚੀਰ

ਉਠ ਪੈਂਦੀ ਹਾਂ ਸੁੱਤੀ ਸੁੱਤੀ ਤੇ ਅਥਰੂ ਆ ਜਾਂਦੇ ਨੇ
ਕਦੀ ਸੋਚਦੀ ਹਾਂ ਕੀ ਮੇਰਾ ਵਹਿਮ ਏ ਇਹ ਤੇ ਕਦੇ ਲਗਦਾ ਹੈ ਕੋਈ ਹਕੀਕਤ ਹੈ 
ਪਰ ਕੀ ਦੱਸਾਂ, ਕਿਸਨੁ ਦੱਸਾਂ? ਕਿਹੋ  ਜਿਹੀ ਹੈ ਮੇਰੀ ਤਕਦੀਰ.

ਸਬ ਕੁਝ ਮਿਲਿਆ ਹੈ ਮੈਨੂੰ, ਖੁਸ਼ੀਆਂ ਨਾਲ ਝੋਲੀ ਭਰੀ ਹੈ
ਪਰ ਹਰ ਖੁਸ਼ੀ ਦੇ ਨਾਲ ਬਚੀ ਹੋਈ ਖਾਲੀ ਖਾਲੀ ਥਾਂ ਬੜੀ ਏ 
ਸੁੰਨਾ ਸੁੰਨਾ ਲਗਦਾ ਹੈ ਜਗ ਹਾਲੇ ਵੀ  ਮੈਨੂੰ 
ਜਦੋ ਕੀ ਦੁਨਿਆ ਉਮੀਦਾਂ ਨਾਲ ਪੈ ਭਾਰੀ ਏ

ਸੋਚਦੀ ਵਿਚਾਰਦੀ ਰਹਿਣੀ ਹਾਂ ਹਰ ਵੇਲੇ 
ਮੇਰੀ ਜਿੰਦਗੀ ਨਿਮਾਣੀ ਚ ਕਿਸਦੀ ਕਮੀ ਖਲ ਰਹੀ ਹੈ?
ਹਰ ਰਿਸ਼ਤਾ ਹੈ,ਪਿਆਰ  ਹੈ, ਮਹੋਬਤ ਹੈ, ਫਿਰ ਵੀ 
ਜਜਬਾਤਾਂ ਦੀ ਹਨੇਰੀ ਕਿਓਂ  ਚਲ ਰਹੀ ਹੈ?

ਦੂਰ ਤਕ ਨਜ਼ਰ ਘੁਮਾ ਕੇ ਕੇ ਵੇਖ ਚੁੱਕੀ ਹਾਂ ਪਰ 
ਕੋਈ ਵੀ ਨਜ਼ਰ ਨਹੀਂ ਆਂਵਦਾ ਮੈਨੂੰ 
ਮੱਤ ਕੁਝ ਆਖਦੀ ਹੈ ਤੇ ਦਿਲ ਕੁਝ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ 
ਆਪਣਾ ਆਪ ਹੀ ਹੁਣ ਕਮਲਾ ਜਾਪਦਾ ਮੈਨੂੰ 

ਮੈਂ ਬਹੁਤੀ ਗਹਿਰੀ ਸੋਚ ਦੀ ਮਾਲਿਕ ਨਹੀਂ ਹਾਂ 
ਪਰ ਸੋਚਦੀ ਬਹੁਤ ਕੁਝ ਰਹਿਣੀ ਹਾਂ 
ਆਪਣੇ ਪਰਾਏ ਸਾਰੇ ਪਿਆਰੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ 
ਪਰ ਦਿਲ ਦੀ ਗਲ ਕਿਸੇ ਨੂਉ ਨਾ ਕਹਿੰਦੀ ਹਾਂ

ਡਰਦੀ ਹਾਂ ਸ਼ਾਯਦ ਕੁਝ ਕਹਿਣ ਤੋਂ 
ਬਹੁਤ ਚਾਹੁੰਦੀ ਹਾਂ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਦੱਸਾਂ ਪਰ
 ਦੁਖੀ ਹੋਵਾਂਗੀ ਤੇ ਦੁਖੀ ਕਰਾਂਗੀ ਉਸਨੁ ਵੀ 
ਤਾਹੀਂ ਰੁਕ ਜਾਂਦੀ  ਹਾਂ ਵਿਖ੍ਯਾ ਸੁਨਾਓੰਨ ਤੋਂ

ਇੱਕ ਦਿਨ ਸੁਪਨੇ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਮਾਸੂਮ ਚੇਹਰਾ ਨਜ਼ਰ ਆਇਆ 
ਪਰ ਸੀ ਓਹ ਬਹੁਤ ਦੂਰ ਕਿਧਰੇ ਆਸਮਾਨਾਂ ਵਿੱਚ
ਪਹਿਚਾਣ ਨਾ ਸਕੀ ਸੀ ਉਸਨੂੰ ਮੈਂ ਪਰ 
ਵੇਖਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀ ਉਸਨੁ ਆਪਣੇ ਅਰਮਾਨਾਂ ਵਿੱਚ

ਮੈਂ ਪੁਛਿਆ ਉਸਨੂੰ ਕੌਣ ਐਂ ਤੂੰ ? ਮੈਨੂੰ ਕਿਓਂ ਏ  ਪੁਕਾਰਦਾਂ?
ਉਸ ਆਖਿਆ ਮੈਂ ਤੇ ਰੱਬ ਦੀ ਧੁੰਨੀ ਚੋਂ  ਤੈਨੂੰ ਰੋਜ਼ ਹੀ ਹਾਂ ਨਿਹਾਰਦਾ 
ਮੈਂ ਤੇ ਕਦੋਂ ਦਾ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹਾਂ ਇੰਤਜ਼ਾਰ, ਪਰ ਆ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ ਅਜੇ ਇਸ ਤੋਂ ਬਾਹਰ 
ਕਿਓਂਕਿ ਮੇਰੀ ਆਤਮਾ ਨੂੰ  ਅਜੇ ਨਹੀ ਮਿਲਿਆ ਹੈ ਕੋਈ ਅਕਾਰ

ਮਾਂ.....  ਆਪਣੀ ਕੁਖ ਵਿੱਚ ਰਖਕੇ ਮੇਰੀ ਆਤਮਾ ਦੇ ਬੀਜ ਨੂੰ 
ਕਰ ਦੇ ਹੁਣ ਤੂ ਮੇਰਾ ਰੂਪ ਸਾਕਾਰ
ਘੁਟਨ  ਜਿਹੀ ਹੈ ਇਥੇ ਹੁਣ ਜਾਪਦੀ ਬੜੀ 
ਗੋਦੀ ਵਿੱਚ ਲੈ ਕੇ ਹੁਣ ਮੈਨੂੰ ਕਰ ਲੈ ਤੂ ਪਿਆਰ 

ਮੇਰੀ ਹੋਂਦ ਤੈਨੂੰ ਬੜਾ ਸੁਖ ਦੇਵੇਗੀ
ਤੇਰੀ ਖੁਸ਼ੀਆਂ ਨਾਲ ਬਚੀ ਹਰ ਖਾਲੀ ਥਾਂ ਭਰ ਦੇਵੇਗੀ... ਹਰ ਖਾਲੀ ਥਾਂ ਭਰ ਦੇਵੇਗੀ.

Thursday, July 8, 2010

धूप और छाया

क्या हुआ जो धूप सी गोरी नहीं,
छाया हूँ मैं.... ठंडक तो देती हूँ.|
तेरे मन की तपती भूमि को मैं,
अपनी साँसों से ही तो सींच देती हूँ |
माना कि उजला है धुप का दामन लेकिन,
मैं छाया हूँ, धूप को भी ढांप लेती हूँ |
जीवन सफ़र के दूर के राही को मैं,
कुछ पल के सुकून का तोहफा देती हूँ |
                      ऐ दोस्त तेरी हमसफ़र हमसाया हूँ मैं,
 तू उजले चेहरों को भले ही सराहना.......
मगर इस छाया की ठंडक और विनम्रता को,
कभी उनसे कमकर मत करारना......
मैं छाया हूँ... छाया ही रहूंगी......
तुम मेरे रहना और मुझे अपनी कह कर ही पुकारना \
             

Thursday, June 10, 2010

सच्ची सफलता..

"सफलता" जिसकी बुलंदिओं को हर कोई छूना चाहता है., जो सबके लिए आखिरी मंजिल होती है| आपको क्या लगता है?? क्या है ये सफलता?? कैसे मिलती है???

                                                                   क्या सिर्फ समाज में उच्च स्थान, बड़ा कारोबार ,  रोआब और मोटी कमाई होना ही काफी है?? चलिए मन की आज के समय में ये भी ज़रूरी है परन्तु केवल इन चीज़ों से ही ज़िन्दगी पूर्ण कही जा सकती है??
              आज  की नारी भी इस सफलता के पीछे जी जान से पड़ी हुई है| अपने आपको पुरुष के बराबर साबित करने के लिए बाहरी सफलता के पीछे भाग रही है| देखिये! 'पुरुष की बराबरी' इस शब्द में तो पहले ही हीणता छिपी हुई है| बराबरी का तो सवाल ही पैदा  नहीं होना चाहिए| भला स्त्री  पुरुष से कम ही कब थी? ईशवर ने तो दोनों को समान बनाया था | हाँ बस दोनों के काम बाँट दिए गए थे | नारी कोमलता का प्रतीक है| सौंदर्य का प्रतिरूप है| ममता की छाँव  है| सहनशीलता की उदाहरण है|  जब उसका  अपना  इतना अच्छा और  सराहनीय  स्थान है  तो पुरुष की बराबरी करने की होड़ में वो  खुद को नीचे  क्यों  करती जा रही है| 
                                                         एक बात बताइए.... जब कोई पुरुष स्त्री  जैसी    हरकतें करता है तो उसका मजाक उड़ाया  जाता  है और जब वो कोमलता प्रदर्शित करे  तो कहा जाता है की चूड़ियाँ  पहन  लो |  विपरीत  गुण  होने को समाज  कभी  स्वीकार ही नहीं करता |  फिर नारी क्यों  अपनी पहचान  को त्यागना चाहती है??
                                               मेरी माँ  गृहणी हैं |  समाज में कोई बहुत ज्यादा नाम नहीं है उनका और मोहल्ले  वाले उन्हें मेरे पापा  की पत्नी के रूप में ही जानते हैं |  शुरू से आज तक घर का काम करती आ रही हैं | रिश्ते नातों को बाखूबी निभाया  है  | अपने बच्चों की परवरिश में कोई कमी नहीं रखी  उन्होंने कभी और पापा की ढाल  बन कर साथ निभाया है उनका | मेरी नज़र में नारी  की  सच्ची  सफलता  यही है | मेरी बातों को गलत नज़रिए से मत  लीजियेगा , कहने का तात्पर्य  केवल ये है की नारी चाहे कितनी भी सफल हो जाये  पर अपना  माँ  और पत्नी होने का फ़र्ज़ जब तक वो ठीक से नहीं निभाती, वो सच्ची सफलता को प्राप्त  नहीं कर सकती |
                                     हम  सब भी इसी सफलता के पीछे दीवाने हुए पड़े  हैं|  सफल  होने के लिए   अपने  कर्तव्यों  को भूल रहे हैं | वफादारी  को भूल रहे हैं, जो सफलता का मूल हैं|    
मेरे लिए तो हर वो इंसान, चाहे अमीर हो  या गरीब, सफल है  जो अपने कर्तव्यों  की पालना तहे  दिल से  करता हो,  अपने काम, अपने रिश्तों और अपने आप के लिए वफादार  हो \
                                                       सोचिये ! यदि हर इंसान अपनी सच्ची सफलता खुद अपने आप तलाशने की कोशिश करे तो हमारा  देश भी कितना सफल हो जायेगा | क्योंकि  देश के निर्माता  तो  हम खुद ही हैं न!   अतएव  सफलता की कुंजी  वफादारी में छिपी  है | 
                       तो देर किस बात की है अपनी अपनी कुंजी ढूंडने  की कोशिश में लग जाईये अभी. |

                             पाठक  अपने विचार आवश्य  दें ... 
                             ऋतू  राजन  सभरवाल | 

Wednesday, June 9, 2010

jeevan duvidha..

            हाथों और पत्तों के ऊपर,
            कुदरत ही बनाती है रेखाएं|
                          हाथ बूढा और पत्ता पीला होने तक,
                                बरकरार रहती हैं ये रेखाएं|
             काश! के हाथों की रेखाएं पत्तों पर,
            और पत्तों की रेखाएं हाथों पर होतीं!            
          

Sunday, June 6, 2010

मन की आन्दोलन संख्या (mann ki andolan sankheya) - Ritu Raj

                                       संगीत "मन की आवाज़!" क्या यह तथ्य सही है?  संगीत पवित्र है,  मन का आईना  है|  जीवन भी तो एक संगीत है|  परन्तु जीवन संगीत में एक ये सब कहने की बातें हैं|
                                       संगीत में एक तत्त्व है "आन्दोलन"| ध्वनी वही संगीतोपयोगी मानी जाती है जिसमे निश्चित आन्दोलन संख्या या आन्दोलन समय हो|
                                      "आन्दोलन" ऐसा क्रम है जिससे ध्वनी की तारता (उंचाई/ नीचाई) को निश्चित किया जाता है| जब किसी साज़  के  तार  को  छेड़ा  जाता है, तो तार  में  कम्पन  होता है|  कम्पन के दौरान तार कितनी बार  हिला  या  कितनी  देर तक हिला, इससे अपेक्षित स्वर की तारता को मापा जाता है| अतः आन्दोलन संख्या ही स्वर की तारता को निश्चित करती है|
                                      सोचिये! यदि यह आन्दोलन संख्या वाला नियम मानव मन पर भी लागू हो जाये तो कितना अच्छा हो| मानव मन को पहचानना कितना सरल हो जाये| किसी के दुःख को देख कर हमारे दिल में कितना  कम्पन  होता  है? मन के तार  कितनी  बार हिलते हैं? यदि ये पता चलने लगे तो अच्छे बुरे की पहचान कर पाना कितना आसान हो सकता है|  है ना?
                                     परन्तु आज के युग में तो मानव मन एक ऐसा साज़ बन चुका है, जिसके तारों पर जंग लग  गया  है,  ज्वारी अपनी जगह से हिल  चुकी है और खूंटियां जाम हो गई हैं जिसके कारण ये साज़ बेसुरे हो  चुके  हैं|  कुछेक साज़ 'गर  इन सबसे बचे भी हैं तो भ्रष्टाचार और महंगाई के चलते उनकी डांड  झुक  कर  टेढ़ी  हो  गई  हैं  जिसके  कारण  वह  अत्यंत  कोशिशों  के बावजूद भी अपेक्षित स्वर  नहीं  निकाल  पाते| कुछ कठोर मन तो केवल बेसुरे घन वाद्य ही बन  कर  रह  गए  हैं जिन पर प्रहार करने से केवल शोर ही उत्पन होता है|
                                     काश! कोई ऐसा साज़गर होता जो मानव मन के इस सुन्दर साज़ को दोबारा  मुरम्मत  कर के सुर में ला  पाता| जब तक ये साज़ सुरीला  व  रसमयी  नहीं होता, जीवन की ये स्वर साधना  सफल  नहीं  हो पाएगी, स्वर अपनी  तारता को नहीं पा सकेंगे और जीवन  रूपी  संगीत अधूरा ही रह जायेगा| ये  तभी  सम्भव  हो  पायेगा  जब  हम  अपने अपने  मन  के  साज़ खुद बा खुद सुर में लायेंगे|  तभी  संसार  के  सभी  मनो  की रागमाला सफल हो पायेगी|
                                      तो अपने अपने हृदय साज़ को सुर में लाने की कोशिश करेंगे न आप???

 - ऋतु राज, मल्सीयाँ (जालंधर)
   7 जून 2010  

Saturday, February 13, 2010

सा रे गा माँ ध्वनित हुए

सा रे गा मा ध्वनित हुए, मेरा चंचल मन लहरा गया,
सोचा यह क्या दिया प्रभु ने, मझे इतना यह क्यों भा गया।
जब तार हृदये के छेड़ कर कल्पना की सरगम बजाई तो,
फिर जल थल अम्बर झूम उठे और हर कोई हैरत खा गया।
जब पहले पहल बनी दुनिया, दुनिया में कुछ भी हसीं न था,
वीणा वादिनी का वरदान यह, दुनिया को रंगीन बना गया।
मेरी दुनिया तो संगीत है, मेरा देवता मेरा गीत है,
मैंने की जो इसकी उपासना, मुझे क्या से क्या ये बना गया।
सा से सरे भारत वासियों
रे से रहो हमेशा साथ साथ,
गा से गाओ मिल कर आज ये,
मा से मन में है यही कामना,
प् से प्रेम की राह पर चलो,
धा स धैर्य कभी तुम छोडो न,
नि से न कभी तुन निराश हो,
सातों स्वरों की है यही प्रार्थना
सातों स्वरों की है यही प्रार्थना
सातों स्वरों की है यही प्रार्थना।

Friday, February 12, 2010

सा रे गा मा

"जब सा रे गा मा गाती हूँ, मन ही मन में मुस्काती हूँ,
मेरे स्वरों में ही भगवान् हैं, मैं इन्ही में सब कुछ पाती हूँ।
कभी
शुद्ध हवा में बैठूं जो, जब सारा जहां लगे प्यारा ,
तो शुद्ध हवा के झोंकों में, बिलावल राग बजाती हूँ।
जब
मन मेरा कुछ चंचल हो, जब मन में मची कोई हलचल हो,
तो देख के कुछ हसीं सपने, बिहाग को मैं गुनगुनाती हूँ।
जब
ग़मों का हो जाये साया, जब कोशिशें हो जाएँ जाया,
तो कोमल रे ध स्वरों वाले, मैं भैरव राग को गाती हूँ।
जब
मन चाहे कुछ सुनने को, मैं कहती हूँ उस कोयल से,
तू भी सुना कुछ तो सखी, मैं तुझको रोज़ सुनाती हूँ।"